मार्कण्डेय पुराण अध्याय 1 – Markandey Puran Adhyay 1
मार्कण्डेय पुराण अध्याय 1 – Markandey Puran Adhyay 1
जैमिनि मार्कण्डेय संवाद – वपूको दुर्वासा का शाप
तपस्या और स्वाध्याय में लगे हए, मार्कण्डेय से व्यास जी के शिष्य महा तेजस्वी जैमिनी ने पूछा – भगवन ! महात्मा व्यास द्वारा प्रतिपादित महाभारत उज्जवल सिद्धांतों से परिपूर्ण है, और अनेक शास्त्रों के दोष रहित है। यह सहज शुद्ध अथवा छंद आदि की शुद्धि से युक्त और साधु शब्दावली से सुशोभित है। इसमें पहले पूर्व पक्ष का प्रतिपादन करके सिद्धांत पक्ष की स्थापना की गई है। जैसे देवताओं में विष्णु, मनुष्यो में ब्राह्मण, तथा संपूर्ण आभूषणों में चूड़ामणि श्रेष्ठ है। जिस प्रकार आयुधो में वज़ और इंद्रियों में मन प्रधान माना गया है, उसी प्रकार समस्त शास्त्रों में महाभारत उत्तम बताया गया है। इसमें धर्म, अर्थ, काम,और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ का वर्णन है। वे पुरुषार्थ कहीं तो परस्पर संबंध है, और कहीं पृथक पृथक वर्णित है, इसके सिवा उनके अनुबंधों का भी इसमें वर्णन किया गया है। भगवन! इस प्रकार यह महाभारत उपाख्यान वेदों का विस्तार रूप है, इसमें बहुत से विषय का प्रतिपादन किया गया है।
मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं, और इसे यथार्थ रूप से जानना चाहता हूं। जगत की सृष्टि, पालन और संहार के एकमात्र कारण सर्वव्यापी भगवान जनार्दन निर्गुण होकर भी मनुष्य रूप में कैसे प्रकट हुए, तथा ध्रुपद कुमारी कृष्णा अकेली ही पांच पांडव की महारानी क्यों हुई? इस विषय में मुझे संदेह है, कि द्रोपदी के पांचों महारथी पुत्र जिनका अभी विवाह भी नहीं हआ था, और पांडव जैसे वीर जिनके रक्षक थे अनाथ की भांति कैसे मारे गए, यह सारी बातें आप मझे विस्तार पर्वक बताने की कपा करें।
मार्कण्डेय जी बोले, मुनिश्रेष्ठ ! यह मेरे लिए संध्या वंदन आदि कर्म करने का समय है। तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर विस्तार पूर्वक देने के लिए यह समय उत्तम नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे पक्षियों का परिचय देता हु, जो तुम्हारे इन प्रश्नों का उत्तर देंगे और तुम्हारे संदेह का निवारण करेंगे।
द्रोण नामक पक्षी के 4 पुत्र हैं, जो सब पक्षियों में श्रेष्ठ, तत्वज्ञान और शास्त्रों का चिंतन करने वाले हैं। उनके नाम इस प्रकार है पिंडक्ष, विबोध, सुपुत्र तथा समख। वेद और शास्त्रों के तात्पर्य को समझने में उनकी बद्धि कभी कठित नहीं होती।
वे चारों पक्षी विंध्य पर्वत की कंदरा में निवास करते हैं, तुम उन्हीं के पास जाकर यह सभी बातें पूछो। जैमिनि ने कहा, ब्रह्मण! अगर पक्षियों की बोली मनुष्य के समान है, तो यह तो बड़ी अदभुत बात है।
पक्षी होकर भी उन्होंने अत्यंत दुर्लभ विज्ञान प्राप्त किया है। यदि तीर्थक योनि में उनका जन्म हुआ है, तो उन्हें ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? वे चारों पक्षी द्रोण के पुत्र कैसे कहे गए? विख्यात पक्षी द्रोण कौन है? जिसके नार पुत्र से ज्ञानी हए, उन गुणवान महात्मा पक्षियों को धर्म का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त हुआ? मार्कण्डेय जी बोले, मुनि! ध्यान देकर सुनो। उस समय की घटना है, जब प्राचीन काल में नंदनवन के भीतर देवर्षि नारद, इंद्र और अप्सराओं का समागम हुआ था।
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एक बार नारद जी ने नंदनवन में देवराज इंद्र से भेंट की उनकी दृष्टि पड़ते ही इंद्र उठकर खड़े हो गए और बड़े आदर के साथ अपना सिहासन उन्हें बैठने को दिया।
वहां खड़ी हई अप्सराओं ने भी देवर्षि नारद को विनीत भाव से मस्तक झुकाया। उनके दवारा पूजित हो नारद जी ने इंद्र के बैठ जाने पर यथा योग्य कुशल प्रश्न के अंतर बड़ी मनोहर कथाएं सुनाई।
उस बातचीत के प्रसंग में ही इंद्र ने महा मुनि नारद से कहा, देवषि ! इन अक्षरों में जो आपको प्रिय जान पड़े उसे यहां नृत्य करने की आज्ञा दीजिए। रंभा, मिश्रकेशी, उर्वशी, तिलोतमा, घुताची अथवा मेनका जिसमें आपको रुचि हो उसी का नृत्य देखें।
इंद्र की यह बात सुनकर नारद जी ने कुछ सोचा और विनय पूर्वक खड़ी हई अप्सराओं से कहा – तुम सब लोगों में से जो अपने आप को रूप और उदारता आदि गुणों में सबसे श्रेष्ठ मानती हो, वही मेरे सामने यहां नत्य करें।
नारद जी की बात सुनते ही वे अप्सराएं एक-एक करके आपस में कहने लगी, में ही गुणों में श्रेष्ठ हूँ, तू नही। दूसरी कहने लगी, में ही श्रेष्ठ हूँ, तू नहीं, । उनका अज्ञान पूर्वक विवाद देखकर इंद्र ने कहा – अरी! मुनिसे ही पूछो, वही बताएंगे कोन सबसे श्रेष्ठ है।
नारद जी से यह पूछने के बाद नारद जी ने कहा, जो गिरिराज हिमालय पर तपस्या करने वाले मुनि श्रेष्ठ दुर्वासा को अपनी चेष्टा से शुद्ध कर देगी, उसी को में सबसे अधिक गुणवंती मानूंगा।
यह सुनकर सब अप्सराओं ने कहा – हमारे लिए यह कार्य असंभव है, किंतु उन अप्सराओं में से एक का नाम वप था ! उसके मन में मुनिओ को विचलित कर देने का गर्व था।
उसने नारद जी को उत्तर दिया, जहां दुर्वासा मुनि रहते हैं, वहां आज मैं जाऊंगी। दुर्वासा मुनि को जो शरीर रूपी रथ का संचालन करते हैं, जिन्होंने इंद्र रूपी घोड़ों को रथ में जोत रखा है, एक अयोग्य सारथी जीतकर दिखाऊंगी।
अपने कामबाण के प्रहार से उनके मन रूपी लगाम को गिरा दूंगी, उनके काबू के बाहर कर दूंगी। इस प्रकार वह अप्सरा वपु हिमालय पर्वत पर गई। उस पर्वत पर महर्षि के आश्रम में उनकी तपस्या के प्रभाव से हिंसक जीव भी अपनी स्वाभाविक हिंसावृति छोड़कर परम शांत रहते थे।
महामुनि दुर्वासा जहां निवास करते हैं, उस स्थान से एक कोस की दूरी पर वह सुंदरी अप्सरा ठहर गई और गीत गाने लगी। उसकी वाणी में कोयल के कलरव सी मीठास थी।
उसकी संगीत की मधुर ध्वनि कान में पड़ते ही दुर्वासा मुनि के मन में बड़ा विस्मय हआ। वे उसी स्थान की ओर गए, जहां वह मृदुभाषिणी ने संगीत की तान छेड़ी हुई थी, उसे देखकर महर्षि ने अपने मन को बलपूर्वक रोका और यह जानकर कि यह मुझे लुभाने के लिए आई है, उन्हें क्रोध आ गया, फिर तो वे महातपस्वी महर्षि अप्सरा से इस प्रकार बोले – आकाश में विचरने वाली अप्सरा, तू बड़े कष्ट से उपार्जित किए हए मेरे तप में विघ्न डालने आई हैं।
अतः मेरे क्रोध से कलंकित होकर तू पक्षी के कुल में जन्म लेगी। ओ खोटी बुद्धिवाली नीच अप्सरा! अपना यह मनोहर रूप छोड़कर तुझे 16 वर्षों तक पक्षिणी के रूप में रहना पड़ेगा।
उस समय तेरे गर्भ से चार पुत्र उत्पन्न होंगे, किंतु तू उनके प्रति होने वाले प्रेम जनित सुख से वंचित ही रहेगी। शस्त्र द्वारा वध को प्राप्त होनेके बाद शाप मुक्त होकर पुनःस्वर्ग लोक में अपना स्थान प्राप्त करेगी।
बस,अब इसके विपरीत तू कुछ भी किसी प्रकार भी उत्तर ना देना। क्रोध से लाल नेत्र किए महर्षि दुर्वासा ने मधुर खनखन आहट से युक्त जल धारण करने वाली अभिमानी अप्सरा को यह दुस्सह वचन सुना कर इस पृथ्वी को छोड़ दिया और विश्वविश्रुत गुणों से गौरववनती एवं ऊताल तरंगों वाली आकाश गंगा के तट पर चले गए।
मार्कण्डेय पुराण अध्याय 1 आगे जारी रहेगा….To Be Continue…
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