देवशयनी एकादशी व्रत कथा, पूजा विधि
अनंत काल से ब्रह्मांड का चक्र निरंतर गति से चल रहा है, काल रूपी नाव में सवार यह संपूर्ण भौतिक जगत् सातत्य पूर्ण रूप से भ्रमण कर रहा है। दिन रात सर्दी, गर्मी, मास, वर्ष अपने स्थान पर सुचारू रूप से संचालित हो रहे हैं। अनंत समय से यह ब्रह्मांड ऐसे ही अपनी दिशा और गति में कार्यान्वित हैं। लेकिन ज़रा सोचिए ब्रह्मांड के पालक स्वयं भगवान विष्णु अगर किसी दिन योग निद्रा में चले जाए, तो फिर क्या होगा? ये सृष्टि का संचालन कैसे होगा और क्या वास्तव में भगवान सोते हैं? जी हाँ, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी यानी देवशयनी एकादशी को इस दिन भगवान श्री विष्णु वास्तव में योग निद्रा में चले जाते हैं और वो भी चार महीने के लिए।
2021 में देवशयनी एकादशी कब है?
मंगलवार, 20 जुलाई, 2021 को देवशयनी एकादशी पड़ रही है।
देवशयनी एकादशी क्यों मनाई जाती है?
भविष्य पुराण में बताया गया है, कि देवशयनी एकादशी से लेकर चार महीने तक भगवान श्री विष्णु सभी देवताओं के साथ योग निद्रा में चले जाते हैं, और इसलिए इन चार महीनों में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता, क्योंकि इस समय के दौरान यज्ञ में किसी भी देवता को आहुति नहीं दी जा सकती।
इसके पीछे कारण यह भी बताया जाता है कि इस समय के दौरान सूर्यदेव दक्षिणायन में भ्रमण करते हैं, और पृथ्वी पर यह वर्षा समय होता है, और इसी के बाद में देवशयनी एकादशी से चातुर्मास का प्रारंभ होता है, यह समय भक्ति के लिए सर्वोत्तम समय माना गया है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस एकादशी को अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे कि देवशयनी एकादशी, पद्मा एकादशी, विष्णु शयनी एकादशी, देव पौड़ी एकादशी, आषाढ़ी एकादशी, महा एकादशी इत्यादि।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा
तो चलिए आज हम आपको शयनी एकादशी की अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण कथा सुनाते हैं, और इसके साथ- साथ आज हम आपको इस एकादशी का पालन करने की पूजा विधि के विषय में भी जानकारी देंगे और उसके लिए अंत तक हमारे साथ बने रहेगा।
तो चलिए अब हम सीधे चलते हैं युधिष्ठिर महाराज के महल में जहाँ भगवान श्रीकृष्ण उनको संपूर्ण वर्ष के दौरान आने वाले विविध एकादशी के विषय में बता रहे हैं।
युधिष्ठिर महाराज ने श्रीकृष्ण से पूछा – हे केशव आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में कौनसी एकादशी आती है, और इसका पालन करने की पूजा भी किया है? कृपा करके आप मुझे इसके महत्व के विषय में बताएं।
भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा – हे पृथ्वीपति महाराज युधिष्ठिर, ध्यान से सुनो, अब मैं आपको एक ऐसी पौराणिक कथा सुनाता हूँ, जो इस सृष्टि के सर्जक ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद को सुनाई थी, यह कहकर भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर महाराज को उस कथा का वर्णन करना प्रारंभ किया।
तो चलिए अब हम आपको भी उसी कथा का रसपान करवाने के लिए एक यात्रा पर लेकर चलते है, और यह यात्रा है, ब्रह्मलोक तक की मानसिक यात्रा, सदैव भगवान नारायण का गुणगान करते हुए, विचरण करने वाले शुद्ध भक्त श्री नारद मुनि एक समय अपने पिता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे।
वहाँ जाकर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया। और बड़े आदर भाव से पूछा – है पिता श्री आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी का क्या नाम है? उसका क्या महत्व है, और किस प्रकार उसका पालन करके उसमें भगवान विष्णु को प्रसन्न कर सकता हूँ? नारद मुनि की बात सुनकर ब्रह्मा जी बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि नारदमुनि का कोई भी प्रश्न सदैव लोकहित के लिए ही होता था।
ब्रह्मा जी ने कहा – आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में आने वाले देवशयनी एकादशी का महत्व दर्शाने के लिए मैं तुम्हें एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ।
सतयुग के समय की बात है, उस समय पृथ्वी पर सूर्य वंश का एक अत्यंत पराक्रमी और धर्मनिष्ठ राजा मान्धाता राज्य करता था।
ये राजा अत्यंत धर्म परायण था, और अपनी प्रजा का अपनी संतान की तरफ पालन पोषण करता था। उसके उदार चरित्र सद्गुण और नीतिपूर्ण जीवन की वजह से उसके राज्य में कहीं भी कोई दुख, तकलीफ या अशांति नहीं थी।
उसके राजकोष में सदन शुद्ध लक्ष्मी का समृद्धि पूर्ण वास रहता था। यहाँ तक कि उसकी सभी प्रजा भी अत्यंत धनवान और समृद्ध थी।
इस प्रकार अनेक वर्षों से वह शांतिपूर्ण रूप से अपना शासन कर रहा था, लेकिन समय की गति को कोई नहीं जान सकता और उसी के चलते काल का चक्र घूमा।
उसके राज्य में एक अनहोनी घटना घटित हुई, एक बार यूं हुआ कि राजा मान्धाता के राज्य में तीन वर्ष तक अकाल पड़ा।
इन वर्षों के दौरान एक बूंद भी वर्षा नहीं आयी। परिणाम स्वरूप पूरे राज्य की प्रजा परेशान हो गयी और 1 दिन वे सब अपने प्रिय राजा मान्धाता के पास आए और उन्होंने राजा से कहा – हे राजन् आपने सदैव हमारा कल्याण किया है, इसलिए आज हम आपसे सहायता याचना करने आए हैं।
इस विश्व में जल के बिना जीवन संभव नहीं है। बादल बनके जब परम भगवान की कृपा इस पृथ्वी पर बरसी है तो जल मिलता है और उसी से सृष्टि का पालन पोषण होता है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हमारे राज्य में अकाल की वजह से सारे जलाशय सूख चूके हैं। मनुष्य और अन्य जीव जल के अभाव में प्यास से मर रहे हैं।
बिना पानी के जमीन से धान भी नहीं उठता और इस प्रकार और अपने अस्तित्व को बचाने की महामारी में हम सब दुख से पीड़ित हैं कृप्या आप कोई उपाय ढूँढ निकाले, जिससे हमारी समस्या का समाधान हो सके, व्यथित प्रजा की वाणी सुनकर, राजा ने कहा आप सबके वचन सर्वथा उचित है, अन्न और धन के बिना अस्तित्व असंभव है।
शास्त्रों में बताया गया है, कि अगर राजा धर्मनिष्ठ ना हो तो उसके राज्य की प्रजा को उसके पाप कर्मों का फल भुगतना पड़ता है।
लेकिन पिछले कुछ समय से मैने ध्यानपूर्वक अपने भूतकाल और वर्तमान के चरित्र पर विचार मंथन किया है। लेकिन मैं आपको विश्वास के साथ आश्वस्त कर सकता हूँ कि मैं कभी भी किसी प्रकार के पाप कर्म में लिप्त नहीं रहा।
फिर भी प्रजा के कल्याण हेतु मैं अवश्य समस्या का समाधान खोजने का प्रयास करूँगा। ये कहकर राजा अपने सैनिकों के साथ इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए जंगल की ओर निकल पड़ा।
वहाँ उसने अनेक ऋषि, मुनि और तपस्वी के पास जाकर इस समस्या का समाधान पूछा, लेकिन कहीं से भी उसे योग्य उपाय नहीं मिल पाया।
आखिरकार यहाँ वहाँ भटकते हुए राजा एक आश्रम में पहुंचा और ये आश्रम महान तेजस्वी और तपस्वी ऋषि अंगिरा मोनिका था।
ऋषि का तेज इतना दिव्य था कि उनकी कांति से सभी दिशाएं आलोकित हो रही थी। जब राजा को पता चला कि यह महान ऋषि अंगिरा का आश्रम है, तो वह तुरंत ही अपने रथ से उतरकर ऋषि अंगिरा के पास गया।
वहाँ जाकर उसने ऋषि को धन्यवाद प्रणाम किया और बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर ऋषि के आशीर्वाद की याचना की। राजा के विनम्रता और धर्मपरायणता से प्रसन्न हुए ऋषि अंगिरा ने राजा को आशीर्वाद दिया और उसके तथा उसके राज्य के कुशल समाचार पूछ।
ऋषि ने राजा से कहा – हे राजन् किसी भी राज्य की कुशलता उस राज्य के साथ अंगों पर निर्भर होती है, और वे अंग हैं, राजा, स्वयं उसके मंत्री, उसका राजकोष, उसका सैन्य ,उसके संगी, साथी, ब्राह्मण और राज्य में आयोजित की जा रही यज्ञ, कर्म तथा राजा पर निर्भर प्रजा की ज़रूरते है।
क्या आपके राज्य में इन सातों अंगों की स्थिती सुखपूर्वक है? राजा ने कहा – हे ऋषि श्रेष्ठ! ईश्वर की कृपा और आपकी आशीर्वाद से मेरे राज्य के ये सातों असुरक्षित और सूखी है।
यह सुनकर ऋषि अंगिरा ने कहा, फिर ऐसा क्या प्रयोजन है, जो आपने अपने सैन्य के साथ इस घने जंगल में आने का कष्ट उठाया है? तब राजा ने व्यथित स्वर में ऋषि को अपने राज्य पर आई हुई अकाल की विपत्ति के विषय में सारा वृतांत कह सुनाया।
राजा ने कहा – हे ऋषि! मैं संपूर्ण वैदिक नियमों का पालन करते हुए और अपनी प्रजा का अपने संतान की भांति पालन करते हुए राज्य कर रहा हूँ, लेकिन फिर भी मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि किस वजह से मेरे राज्य में पिछले तीन वर्ष से अकाल पड़ रहा है।
इसी समस्या के समाधान हेतु मैं आपकी शरण में आया हूँ। कृप्या आप मेरे और मेरे राज्य के कष्ट का कोई निवारण बताने की कृपा करें।
ये सुन ऋषि ने राजा से कहा – हे राजा वर्तमान युग सभी युगों में श्रेष्ठ सतयुग है। इस युग में धर्म अपने चारों स्तंभों पर खड़ा है, सतयुग के समाज में ब्राह्मण को सर्वोपरि माना जाता है, और यज्ञ इत्यादि कर्म तथा तपस्या करने का अधिकार केवल ब्राह्मण को ही है।
लेकिन इस नियम का उल्लंघन करते हुए, इस समय आपके राज्य में एक शूद्र है, जो यज्ञ और तपस्या कर रहा है। अगर आप उसे ढूँढ के मृत्युदंड देते हैं, तो इससे समाज में संतुलन फिर से स्थापित हो जाएगा और राज्य में वर्षा भी होगी।
राजा ने ध्यानपूर्वक ऋषि की बात सुनी और फिर कहा, किंतु है महात्मन कोई भी निर्दोष व्यक्ति जो कि यज्ञ और तपस्या कर रहा हो, उसे मैं केवल शूद्र होने की वजह से मृत्युदंड कैसे दे सकता हूँ? नहीं नहीं, ये मुझसे नहीं होगा। आप कोई और आध्यात्मिक उपाय बताने की कृपा करें।
राजा की दया और प्रजावत्सलता को देखकर ऋषि अंगिरा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा से कहा राजन् आप वास्तव में प्रजा प्रेमी आदर्श राजा है।
अब मैं आपको आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली देवशयनी एकादशी के व्रत के विषय में बताता हूँ। इस एकादशी को पद्मा एकादशी भी कहते हैं। ये सर्वश्रेष्ठ और हर प्रकार के धन, धान्य और प्रसन्नता प्रदान करने वाली एकादशी है।
इसका पालन करने से तुम्हारे राज्य में वर्षा और हर प्रकार की सुख समृद्धि का पुनरागमन होगा। जो भी व्यक्ति इस एकादशी को श्रद्धा और निष्ठापूर्वक पालन करता है, उसके मार्ग की समस्या बाधाएं नष्ट हो जाती है, और वह मनुष्य जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।
इसलिए तुम्हें अपने परिवार और समस्त प्रजा के साथ मिलकर इस एकादशी का श्रद्धा और भक्तिभाव पूर्वक पालन करना चाहिए।
ऋषि के बात सुनकर राजा अत्यंत हर्षित हुआ और इस एकादशी का पालन करने का संकल्प लेकर वापस अपने राज्य में आ गया।
जब आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी आई तो उसने अपने सभी मंत्रीगण और समस्त प्रजा को इस एकादशी का पालन करने के लिए कहा और इस प्रकार राजा मान्धाता ने अपनी प्रजा के साथ देवशयनी एकादशी का पालन किया, फिर उसकी राज्य में वर्षा हुई और समस्त सुख समृद्धि का पुनरागमन हुआ और ब्रह्मा जी द्वारा नारद मुनि को सुनाई जा रही इस कथा का समापन करते हुए ब्रह्मा जी ने नारद मुनि कहा – यह एकादशी समस्त पाप कर्मों को नष्ट करने वाली और अत्यंत पवित्र हैं।
जो कोई भी व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर जीवन की पूर्णता को प्राप्त करना चाहते हैं, उसे निष्ठा पूर्वक इसका पालन करना चाहिए क्योंकि इसका पालन न सिर्फ भगवान विष्णु को प्रसन्न करता है अपितु मनुष्य को नर्क के द्वार से भी बचाता है।
हम आपको एक बार फिर याद दिला दें ब्रह्मा जी और नारद मुनि की कथा का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर महाराज को सुना रहे थे।
जब उन्होंने इस कथा को पूर्ण किया तो फिर भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर महाराज ने कहा इस एकादशी का इतना महत्व है, कि जो कोई भी इस कथा का श्रवण और पठन भी करता है तो उसके सारे पाप कर्म खत्म हो जाते हैं।
जो कोई भी मुझे प्रसन्न करना चाहता है, और इस संसार चक्र से मुक्त होने की कामना रखता है, उसे इस एकादशी का अवश्य पालन करना चाहिए। इसी एकादशी से चातुर्मास का भी प्रारंभ होता है।
देवशयनी एकादशी की पूजा कैसे करें?
चलिए अब हम आपको इस एकादशी का पालन करने की विधि बताते हैं। अगर आप निष्ठापूर्वक इस एकादशी का पालन करना चाहते हैं, और उसका संपूर्ण फल प्राप्त करना चाहते हैं, तो इस विधि का अवश्य पालन करने का प्रयास करें।
देवशयनी एकादशी में 1 दिन पहले यानी दशमी के दिन सूर्यास्त के बाद भोजन ग्रहण न करें। शाम के भोजन में फल या दूध ले सकते हैं।
दूसरे दिन एकादशी के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जल्द जाये और स्नान इत्यादि अपने नित्यकर्म के बाद घर में भगवान की मंगला आरती करें।
अगर यह संभव न हो तो इसके लिए आप नज़दीक के किसी इस्कॉन मंदिर में जा सकते हैं। जहाँ हर रोज़ सुबह 4:30 बजे मंगला आरती की जाती है।
अगर आपके आस पास यह सुविधा भी उपलब्ध न हो, तो आप ऑनलाइन इस्कॉन, वृंदावन, मायापुर या इस्कॉन दिल्ली से लाइव दर्शन भी कर सकते हैं।
उसके बाद अपने घर में रखे तुलसी के पौधे को जल अर्पण करें। उसकी तीन बार प्रदक्षिणा करें और उसके सामने बैठकर भगवान के पवित्र नाम का जाप करें।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम, हरे, राम, राम, राम, हरे, हरे इस महामंत्र का प्रात काल में और संपूर्ण दिनभर ज्यादा से ज्यादा मात्रा में जाप करें।
इस एकादशी का पालन अपनी शारीरिक क्षमता और इच्छा के अनुसार निर्जला जल के साथ फल के साथ या फिर एकादशी प्रसाद के साथ कर सकते हैं। लेकिन इस दिन व्यर्थ की बातों में समय न गवाएं। और ज्यादा से ज्यादा समय भगवन का नाम जप करने में लगाए संध्या के समय अपने घर में भगवान का कीर्तन कर सकते हैं।
तो चलिए समझ पूर्ण फल प्रदान करने वाली देवशयनी एकादशी का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं, और अपनी चेतना को शुद्ध करते हुए अपने जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर होने का प्रयास करते हैं। जय श्री कृष्णा।