गरुड़ पुराण चौथा अध्याय | Garud Puran Adhyay 4
गरुड़ पुराण चौथा अध्याय | Garud Puran Adhyay 4 | गरुड़ पुराण अध्याय – 4
रूद्र जी ने कहा, हे जनार्दन ! आप हमे कृपा करके सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर, तथा वंशानुचारित का संक्षिप्त में ज्ञान दे।
श्री हरी विष्णु ने कहा, हे रूद्र! में इन सब का तथा पापनाशीनि सृष्टि की स्थिति और प्रलय स्वरूप भगवान विष्णु की सनातन क्रीड़ा का आप लोगो को ज्ञान देता हू। अतः आप इसे ध्यान से सुने।
भगवान वासुदेव प्रकाश स्वरूप परमात्मा, परब्रह्म तथा देवाधिदेव है। वह नर नारायण रूप में है। यह संसार की रचना तथा विनाश के कर्ता वही है। इस जगत में जो भी कुछ दुष्ट, अदुष्ट होता है, वह सब भगवान का ही व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप है।
बालक जिस प्रकार से क्रीड़ा करता है, वैसे ही व्यक्त रूप में भगवान विष्णु और अव्यक्त रूप में काल की क्रीड़ा होती है। भगवान वासुदेव ही कालरूप में प्रलय के लिए विद्यमान है। उन्ही की लीलाओं को में बताने जा रहा हु।
परमात्मा का कोई आदि या अंत नहीं होता। उनको ही इस संसार को धारण करने वाले अनन्त पुरुषोत्तम माना गया है। उनसे ही अव्यक्त प्रकृति उत्त्पन्न होती है। आत्मा की उत्त्पति भी उन्ही से होती है। वही अव्यक्त प्रकृति से बुद्धि उत्पन्न होती है।
इसके पश्चात बुद्धि के द्वारा मन, मन के द्वारा आकाश, आकाश के माध्यम से वायु, वायु के द्वारा तेज की उत्त्पति और तेज से जल उत्पन्न होता है, तथा जल से इस सृष्टि की रचना होती है।
हे रूद्र! इसके बाद इस पृथ्वी पर हिरण्यमय अंड की उत्त्पति हुई। उस अंड में प्रभु खुद प्रवेश करके इस संसार के लिए सबसे पहले शरीर धारण करते है। उन्हों ने ही सर्वप्रथम चतुर्मुख ब्रह्मा का रूप लिया और शरीर धारण करके इस संसार की रचना की।
मनुष्य, देव, असुर तथा संपूर्ण सृष्टि इस अंड में विद्यमान है। ब्रह्मा के स्वरूप में वही परमात्मा ने इस संसार की रचना की, विष्णु स्वरूप में वही इस संसार की रक्षा करते है और शिव स्वरूप में वो देवो का संहार करते है।
यह एक ही परमेश्वर ब्रह्मा रूप में सृष्टि की रचना , विष्णु रूप में पालन और शिव रूप में विनाश करते है। वही एकमात्र परमात्मा सृष्टि की उत्तपत्ति के समयनपर वराह का रूप धारण करते है, और अपने दांतो से इस जलमग्र पृथ्वी का उद्धार करते है।
16 घोर नरक गरुड़ पुराण के अनुसार – Narak Garud Puran
सर्व प्रथम परमात्मा से महत्व उत्तपन्न होता है। वही महत्व से ब्रह्म का विकार हुआ। यह पहला सर्ग माना गया। दूसरे सर्ग में रूप, रस, गंध , स्पर्श, तथा शब्द की उत्तपत्ति हुई। दूसरे सर्ग को भूत सर्ग भी कहा गया है।
उसके बाद तीसरे सर्ग में पृथ्वी, जल , तेज, वायु और आकाश की उत्त्पति हुई। इस सर्ग में कर्मेंद्रीय तथा ज्ञानेंद्रियों की रचना के कारण इसे एंद्रिक कहा जाता है। यह सर्ग बुद्धि पूर्वक उत्पन्न होता है, इसीलिए इसे प्राकृत सर्ग कहते है।
चौथे सर्ग में पर्वत और वृक्ष आदि की रचना होती है। इन स्थावरो को मुख्य माना गया है, इसीलिए इसका नाम मुख्य सर्ग है। पांचवे सर्ग में पशु पक्षी आदि की उत्त्पति होती है, जिसे तिर्यक सर्ग कहते है।
छठे सर्ग में उर्ध्वास्त्रोतो की उत्त्पति होने से इसे देव सर्ग कहते है। सातवे सर्ग का नाम मानुष सर्ग है, उसमे आर्वाक स्त्रोतो की उत्त्पति होती है। आठवें सर्ग में सात्विक तथा तामसिक गुणों की सृष्टि होती है, इसीलिए इसे अनुग्रह सर्ग कहते है।
इन आठों सर्ग को प्राकृत तथा विकृत में विभाजन होता है, जिसमे से पांच सर्ग वैकृत है, और तीन सर्ग प्राकृत है। प्राकृत और वैकृत दोनो के संयुक्त सर्ग को कौमार कहते है, जो नवमां सर्ग है।
इस जगत की सृष्टि चार प्रकार से हुई। सर्व प्रथम मानस पुत्र की रचना हुई। उसके बाद देव,असुर, पितृ, तथा मनुष्यों की उत्त्पति हुई। इसके बाद ब्रह्मा जी ने जल सृष्टि की रचना हेतु अपने मन को उस कार्य में मग्न रखा, इसके कारण ब्रह्मा जी में तमोगुण उत्पन्न हुआ।
उसी तमोगुण के प्रभाव से सर्व प्रथम असुरों की उत्त्पति हुई। अतः उन्होंने इस तमोगुण रूप शरीर का त्याग किया तो उनेक शरीर से तमोगुण के निकलने से उसी गुण ने रात्रि का रूप धारण कर लिया। सृष्टि को इसी रात्रि रूप में यक्ष और राक्षसों ने देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुए।
उसके पश्चात सत गुणों की उत्तप्ति हुई। और सतगुण के प्रभाव से उनके मुख से देवताओं की सर्जना हुई। और फिर उन्होंने वह सतगुण रूप शरीर का त्याग किया, तब उसने दिन का रूप धारण कर लिया। अतः दिन में देवताओं की शक्ति बढ़ जाती थी और रात में असुरों की शक्ति बढ़ जाती थी।
इसके बाद ब्रह्माजी ने सात्विक गुणों को उत्पन्न किया और उसी के प्रभाव से पितृगण उत्तपन् हुए। जब उन्हों ने उस शरीर का त्याग किया, तो उन गुणों की मात्रा से संध्या की उत्त्पति हुई।
दिन और रात्रि के मध्यमे स्थित रहने के कारण उसे संध्या कहा गया। उसके बाद ब्रह्मा जी ने राजोमय गुणों को उत्पन्न किया। तब उस गुणों के प्रभाव से मनुष्यों की उत्त्पति हुई और उसके त्याग करने पर उन गुणों की मात्रा से ज्योत्सना हुई, जिसे प्रभात काल भी कहते है। इस प्रकार रात्रि , दिन, संध्या और ज्योत्सना की ब्रह्मा के शरीर से ही रचना हुई है।
तदनतर ब्रह्माजी ने रजोमय गुण के प्रभाव से क्षुधा और क्रोध की उत्त्पति हुई। जिसके पश्चात भूख प्यास से आतुर तथा रक्त मांस खाने पीने वाले राक्षसों और यक्षों की रचना हुई।
इसके बाद ब्रह्माजी के केश उनके सिर से गिरकर पुनः उनके सिर पर आ गए, तब इसे सर्प का नाम दिया गया। तत्पश्चात ब्रह्मांजी ने अपने क्रोध से भूतो की उत्त्पति की। उसके बाद ब्रह्मा से गंधर्वों का जन्म हुआ। वह गायन करते उत्पन्न हुए थे, इसीलिए उनको गंधर्व तथा अप्सरा कहा गया।
उसके पश्चात उन्होंने अपने वक्ष स्थल से स्वर्ग और घुलौक का सर्जन हुआ। तदनतर ब्रह्माजी ने अपने मुख से, उदर ,पार्श्व भाग से और पैर भाग से अज, गौ, हाथीसहित, अश्व, महिष, ऊंट, और भेड़ को उत्तपन किया। फिर उनके रोम से फल, फूल और औषधियों का जन्म हुआ।
पवित्र पशुओं में गौ, अज तथा पुरुषो का समावेश होता है। ग्राम्य पशुओं में घोड़े, खच्चर, और गदहे, का समावेश होता है। वन्य पशुओं में हिंसक, खुरोवाले, तथा हाथी, बंदर, पक्षी, जलचर, और सरीसृप जीवो का क्रमशः समावेश होता है।
ब्रह्माजी के चार मुख थे। उनके चारो मुखो से चार वेदों के रूप में रुक, यजू, साम, और अथर्व,की उत्त्पति हुई। और चार जातियों के रूप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शुद्र की उत्त्पति हुई।
ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मा जी ने ब्रह्मलोक का निर्माण किया और क्रमशः क्षत्रियों के लिए इंद्रलोक, वैश्य के लिए वायुलोक तथा शुद्रो के लिए गंधरवलोक का निर्माण किया।
उन्होंने अन्य भिन्न-भिन्न लोको की रचना की जिसमे ब्रह्मलोक ब्रह्मचारीयो के लिए, प्रजापत्य लोक स्वधर्म निरत गृहस्थाश्रम का पालन करने वालो के लिए, सप्तर्षि लोक का निर्माण वानप्रस्थ श्रमिकों के लिए तथा अक्षय लोक की रचना परम तपोनिधियो ,इच्छानुकूल विचरण करने वाले लोगो के लिए की।
सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर, तथा वंशानुचारित का संक्षिप्त ज्ञान गरुड़ पुराण के माध्यम से गरुड़ पुराण चौथा अध्याय पूर्ण हुआ। अत्यंत फलदायी गरुड़ महा पुराण के सभी अध्यायों का विस्तार पूर्वक पढ़ने के लिए Buy Now बटन पे क्लिक करे।
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