श्री कृष्ण अनुसार समझे ”योगः कर्मसु कौशलम” का अर्थ | Yogah Karmasu Kaushalam Meaning in Hindi
श्रीमद भगवत गीता से समझे ”योगः कर्मसु कौशलम” का अर्थ | Yogah Karmasu Kaushalam Meaning in Hindi
”बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्”
आज हम “योगः कर्मसु कौशलम” का अर्थ समझते है। तो आइये इसके संदर्भ को जानते हैं। यह श्रीमद भगवत गीता का श्लोक है, और बहुत ही प्रसिद्ध श्लोक हैं। उसी से ये उद्धृत है। गीता में कुल 18 अध्याय हैं। और प्रत्येक अध्याय में भगवान कृष्ण ने किसी ने योग की स्थापना की है। किसी न किसी योग का प्रतिपादन किया है।
जैसे पहला अध्याय विषाद योग से शुरू होता है। अर्जुन विषाद में है, शोकग्रस्त हैं। इसलिए उस अध्याय का नाम विषादयोग ही हो गया।
इसी प्रकार दूसरा अध्याय। इसका नाम दिया है सांख्य योग। सांख्य योग का मूल तत्व समझ है, विवेक है। तो जो भी इस अध्याय में कृष्ण बात कर रहे हैं, वह विवेक की बात कर रहे हैं, समझ की बात कर रहे हैं, प्रज्ञा की बात कर रहे हैं।
”योगः कर्मसु कौशलम” यह अर्ध्य श्लोक हैं। इसको पूरे श्लोक को पहले जानते हैं, कि कृष्ण पूरी बात क्या कह रहे हैं? विवेक वाला व्यक्ति क्या करता है? पाप और पुण्य दोनों को त्याग कर, दोनों से मुक्त होकर, हे! अर्जुन!, तुम भी ऐसे योग का मार्ग ग्रहण करो, जहाँ कर्म करने में एक समझ चाहिए, एक विवेक चाहिए।
पाप और पुण्य का खयाल, क्योंकि अर्जुन को लगता था, कि हिंसा करने से स्वजनों को मारने से पाप लगेगा। कहते हैं, ये विवेक की बात नहीं है। ये समझ की बात नहीं है, कि फल क्या होगा? समझ की बात ये है, कि तुम कर्म कैसे करते हो।
तुम कर्म करने पर ध्यान दो, तो तुम ऐसे समस्त योग से तुम जुड़ जाओ, जिसमें पाप और पुण्य किसी फलाफल का विचार नहीं है। ऐसे तुम जुड़ जाओ ये होगा योगः कर्मसु कौशलम, मतलब ऐसे योग से कर्म में कुशलता है।
आज की मैनेजमेंट की भाषा में कह रहे हैं, तुम कर्म करो तो उत्कृष्टता की खोज में करो, उत्कृष्टता की तलाश में करो, कर्म में उत्कृष्टता चाहिए। कृष्ण जीस कुशलता की बात कर रहे हैं। उस कुशलता के तीन सोपान है।
पहला है, सम्यक कर्म जो कृष्ण बार-बार कह रहे हैं, कि सम्यक होके कर्म करो, कर्म पर ध्यान दो, यह पहला सोपान है। अगर कर्म करने पर हम ध्यान देते हैं, तो कर्म में कुशलता आती है।
अगर फलाफल का विचार करते रहते हैं, तो कर्म में हमारा ध्यान नहीं रहता। हमारा ध्यान फल पर चला जाता है, और कर्म में फिर कुशलता नहीं आती है।
दूसरा सम्यक योग खुदसे जुड़ना। अगर हम खुदसे नहीं जुड़े तो हमारी कुशलता नहीं बढ़ती। दूसरे पर हमेशा ध्यान है, जोकि स्वयं से जुड़ना है। और तीसरी बात सांख्य योग से संबंधित है, कि समय प्रज्ञा चाहिए। कर्म के समय विवेक चाहिए, कर्म करने में ये तीन बातें अगर हम साधते हैं. तो कृष्ण के अनुसार हमारी कुशलता बढ़ती है।
तो पहले जानो कि जब कृष्ण सम्यक कर्म की बात कर रहे हैं, सम्यक कर्म के तीन सोपान है, जिसकों मैनेजमेंट की भाषा में थ्री एज कहते हैं, अब देखो। ये मैनेजमेंट की खोज पिछले 30-40 वर्षों में हुई है, लेकिन 5 हज़ार साल पहले कृष्ण ने इसकी बात कही थी।
कर्म के साथ अपने शरीर को शामिल करो। इसको मैनेजमेंट की भाषा में थ्री एज कहते हैं, पहले एज का मतलब हाथ, दूसरे एज का मतलब क्या है, सर, अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करो और तीसरे एज का मतलब ह्रदय होता है।
जब कृष्ण सम्यक कर्म की बात कर रहे हैं, तो इन तीनों एज की बात कर रहे हैं। तो पहली बात है, कि कर्म के साथ अपने शरीर को शामिल करो, क्योंकि शरीर से ही कर्म होता है। और इस तरह देह को शामिल करो।
महर्षि पतंजलि ने क्रिया योग की बात की है, और पतंजलि ने क्रियाओं में तीन तत्वों को रखा है। पहला है, तप, दूसरा स्वाध्याय और तीसरा ईश्वर प्रणिधान तो क्रियायोग कर्म योग को हीं पतंजलि क्रियायोग कह रहे हैं और कहा कि क्रिया योग पहला तप करना, तप का मतलब है, कि अपने शरीर को तपाओ, अपने शरीर से कर्म करो, शरीर को शामिल करो, इसी को ही तप कह रहे हैं।
तो पहला सोपान है, कि अपने शरीर को कर्म में लगाओ, शरीर से मेहनत करो, परिश्रम करो। जो श्रम करने वाली बात है, वो हाथ को जोड़ने वाली बात है। इससे हमारी कुशलता 20% बढ़ जाती है। 20% कुशलता हमारे कर्म में आती है।
जो सम्यक कर्म का दूसरा हिस्सा सर है। दूसरा एच अर्थात अब कर्म के साथ अपनी बुद्धि को शामिल करो, उस कर्म करने में अपने बुद्धि को भी लगाओ, बुद्धि को भी शामिल करो, तो अगर हम बुद्धि को उसमें शामिल कर लेते हैं, तो हमें बहुत सारी चीजे बुद्धि से विचार करना चाहिए।
अगर आप खेती करते हो तो उत्तम बीज बोना चाहिए, बीज का सेलेक्शन कैसे करे, उसके लिए मौसम क्या होना चाहिए, कि इस मौसम में कौन सा बीज लगाएंगे? उसके बारे में हमारी जानकारी होनी चाहिए। इस तरह से उसमें हम बुद्धि को अगर लगाते हैं, तो हमारी कुशलता 40% के स्टेज तक पहुँच जाती है, 20% श्रम और 20% बुद्धि से ऐसे 40% बढ़ जाती है। इसी को पतंजलि क्रिया योग में स्वाध्याय कहते हैं।
सम्यक कर्म का तीसरा सोपान है, जो तीसरा फल है, जिसकों मैनेजमेंट की भाषा में तीसरा ऐज कहते है। अब हृदय को काम में लगाओ। आप यह हृदय को लगाना इसके लिए योगः कर्मसु कौशलम की चर्चा करते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने एक संस्मरण सुनाया।
बड़ा प्यारा संस्करण है, कहते हैं, कि हम ट्रेन से आते जाते थे। पहले जब वह गुजरात में रहा करते थे, तो उन्होंने देखा कि ट्रेन में एक लड़का पोलियो ग्रस्त है, ज्यादा चल फिर नहीं सकता, जो बूट पॉलिश करता है, तो वो लोगो के पास जाता है, और सबका बूट पॉलिश करता है। वो मांग नहीं रहा, भीख नहीं मांग रहा है, वो स्वाभिमान के साथ कर्म कर रहा है, तो जिसके बूट पॉलिश करता है, उसके हाथ में वो अखबार देता है। और निवेदन करता है, कि आप अखबार पढ़ने का मज़ा लीजिए।
तब तक मैं बूट पॉलिश करने का मज़ा लेता हूँ और बूट पॉलिश करता है, तो मोदीजी ने उसे बाद में पूछा की भाई अखबार क्यों देते हैं? तुम्हे कितने पैसे मिलते है? उस जमाने ₹2 का अखबार मिलता था।
तो उसने कहा कि मुझे ₹2 अखबार में लगते हैं, लेकिन बहुत सारे ग्राहकों का मैं जूता पोलिश करता हूँ, ₹2 में ही वो सब चुपचाप अखबार पढ़ते है, और हमसे बदले में पोलिश भी करवा लेते है। तो इस तरह से वो अपना हृदय लगा रहा है, उस कर्म में और मोदीजी कहते हैं। उस समय मुझे समज आया की योगः कर्मसु कौशलम का अर्थ क्या है।
इस तरह हम ह्रदय को भी लगा देते है, तो कुशलता का स्तर 60% तक बढ़ जाता है। अब श्री कृष्ण रहे हैं कि कुशलता का यह सम्यक कर्म पहला सोपान है।
लेकिन दूसरा सोपान सम्यक योग है। अब यहाँ पर थ्री एच के पार की बात हो रही है, लेकिन भगवान कृष्ण का मैनेजमेंट इसके आगे है, अब तक हमने हाथ, सर और ह्रदय को शामिल किया। अब भगवन श्री कृष्ण कह रहे है, की अब अपनी आत्मा को शामिल करो। आत्म समर्पण होके कर्म करो, और फिर कुशलता 80% तक बढ़ जाती है।
लेकिन कृष्ण यहीं नहीं रुकते, वह तीसरे कुशलता के तीसरे सोपान पर जाते हैं। वह है,सम्यक प्रज्ञा। सम्यक प्रज्ञा का अर्थ सम्यक विवेक होना चाहिए।जो समझ होनी चाहिए। जैसे इसका मूल तत्व समझ है।
इसी को पतंजलि के योग में ईश्वर प्रणिधान कहते है। क्या है, ईश्वर प्रणिधान? अब तुम सबकुछ ईश्वर को समर्पण कर दो। मतलब तुम कर्म करो पर परिणाम कभी अनुकूल होगा, तो कभी प्रतिकूल, तो फल को ईश्वर को समर्पित करदो। जो ईश्वर फल को अपनी इच्छा अनुसार फल ईश्वर नक्की करेगा। यही है, योगः कर्मसु कौशलम।
तो श्री कृष्ण गीता में कहते है, हे! अर्जुन! कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, फल पर नहीं। तो फल की चिंता मत करो बस कर्म करते जाओ, कर्म करने का आनंद लो। इसी प्रकार से भगवन श्री कृष्ण भगवत गीता के माध्यम से अर्जुन को योगः कर्मसु कौशलम का अर्थ समजाते है।
तो हम आशा करते है, भगवन श्री कृष्ण द्वारा भगवत गीता में समजाये गए योगः कर्मसु कौशलम का अर्थ आपको समज आया होगा। जय श्री कृष्ण।