श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित | Kanakadhara Stotram In Hindi

श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित  Kanakadhara Stotram In Hindi
श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित Kanakadhara Stotram In Hindi

श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित | Kanakadhara Stotram In Hindi

कभी-कभी जीवन में बहुत परिश्रम करने के बावजूद भी हमारी आर्थिक व्यवस्था बिगड़ जाती है। अपनी आर्थिक व्यवस्था को अच्छी बनाने के लिए एवं धन प्राप्ति के लिए हम हर संभव प्रयास करते है। कभी-कभी आर्थिक परिस्थितिओ के प्रतिकूलताओं से परेशान होकर गलत दिशाएं भी चुन लेते है, और भटक जाते है। ये सब क्यों होता है। ये सब हमारी अज्ञानताओ के कारण होता है। हम अपने वैदिक ज्ञान से अनजान है। जिसमे हर समस्या का समाधान छिपा है। इसी समस्या के निवारण हेतु आज हम श्री कनकधारा स्तोत्र का पाठ करेंगे।

श्री कनकधारा स्त्रोत की रचना आदि शंकराचार्य जी ने की थी। इसका पाठ करके शंकराचार्य जी ने स्वर्ण की वर्षा की थी। इस स्त्रोत का नित्य पाठ करने वाले को मां लक्ष्मी जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है और बहुत ही अदभुत और चमत्कारी लाभ होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि करके एकाग्रता पूर्वक मां लक्ष्मी जी का ध्यान करके श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित पाठ करे। कुछ ही समय में आपको इसका परिणाम देखने को मिलेगा।

॥ श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित ॥

ॐ अङ्गं हरै ( हरेः) पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाऽगनेव मुकुलाभरणं तमालं |

अंगीकृताऽखिलविभूतिरपाँगलीलामाँगल्यदाऽस्तु मम् मङ्गलदेवतायाः || १ ||

जैसे भ्रमरी अर्ध खिले पुष्पों से अलंकित पत्तो के पेड़ का आश्रय लेती है उसी प्रकार श्री हरि के रोमांच से सुशोभित श्री अंग जिसमे संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है ऐसी संपूर्ण मंगली की अधिष्ठात्री देवी भगवती महा लक्ष्मी का कटाक्ष मेरे लिए मंगल दायी हो।

मुग्धा मुहुर्विदधी वदने मुरारेः प्रेमत्रपा प्रणिहितानि गताऽगतानि |

मलार्दशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा में श्रियं दिशतु सागर सम्भवायाः || २ ||

जैसे भ्रमरी कमल डाल पर मंडराती रहती है उसी प्रकार जो श्री हरी के मुखार विंद की ओर बराबर प्रेम पूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है वह समुद्र कन्या लक्ष्मी की मनोहर सृष्टि माला मुझे धन संपत्ति प्रदान करे।

विश्वामरेन्द्र पदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोपि |

ईषन्निषीदतु मयि क्षण मीक्षणार्धंमिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दीरायाः || ३ ||

जो सम्पूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र का पद वैभव विलास देने में समर्थ है श्री हरी को भी अति अधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है उन लक्ष्मी जिनके अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए ही थोड़ी सी अवश्य पड़े।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदामुकुन्दमानन्द कंदमनिमेषमनंगतन्त्रं |

आकेकर स्थित कनीतिकपद्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्ग शयाङ्गनायाः || ४ ||

शेष शायी भगवान विष्णुंकी धर्म पत्नी श्री लक्ष्मी जी के नेत्र हमे ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हो। जिन आंखों की पुतली तथा प्रेम के वसीभूत होकर अधखुले ही किन्तु वे पलक नयनों से देखने वाले आनंद श्री मुकुंद को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती है।

बाह्यन्तरे मुरजितः(मधुजितः) श्रुतकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति |

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु में कमलालयायाः || ५ ||

जो भगवान मधुसूदन के कौतूब मणि से सुशोभित है,। इंद्रनील मयी हरावली सी सुशोभित है तथा उनके मन में भी प्रेम का संचार करने वाली है वह कमल कुंज वासिनी कमला के कटाक्ष माला मेरा कल्याण करे।

कालाम्बुदालि ललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव |

मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि में दिशतु भार्गवनंदनायाः || ६ ||

जैसे बादलो की घटा में बिजली चमकती है उसी प्रकार जो श्री विष्णु के काली मेघ माला के समान श्याम सुंदर अक्ष स्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अवीर भाव से रघुवंश को आनंदित किया तथा जो समस्त लोको की जननी है उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मेरा कल्याण करे।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत प्रभावान्मांगल्यभाजि मधुमाथिनी मन्मथेन |

मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं मकरालयकन्यकायाः || ७ ||

समुद्र कन्या कमला की वह मंद आलस मंथर और अर्धोनिलित दृष्टि ,जिनके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार  स्थान प्राप्त किया , यहां मुझ पर पड़े।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशो विषण्णे |

दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः || ८ ||

भगवान नारायण की प्रियसी नेत्र रूपी मेघ दया रूपी अनुकूल पावन से प्रेरित होकर दुष्कर्म रूपी धूप को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विशाल रूपी धर्ममय जप से पीड़ित मुझ दिन रूपी जातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे।

इष्टाविषिश्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते |

दृष्टिः प्रहष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः || ९ ||

विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते है, पद्मासना पदमा की वह विकसित  कमल गर्भ के समान कांतिमय दया दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।

गीर्देवतेति गरुड़ध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति |

सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै || १० ||

जो सृष्टि लीला के समय ब्रह्म शक्ति के रूप में विराजमान होती है, पालन लीला के समय श्री हरिबकी पत्नी वैष्णवी शक्ति तथा प्रलय लीला के काल में भगवती दुर्गा मां पार्वती रूद्र शक्ति के रूप में अवस्थित होती है उन त्रिभुवन के एक मात्र पिता भगवान नारायण की प्रिय स्त्री श्री लक्ष्मी जिनको नमस्कार है।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणार्णवायै |

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै || ११ ||

हे माते! शुभ कर्मों का फल देने वाली स्तुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों के सिंधु रुपा प्रीति के रूप में आपको नमस्कार है। कमलवन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है। तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिय को नमस्कार है।

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै |

नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै || १२ ||

कमल वंदना कमल को नमस्कार है। सिर सिंदूर सभ्यता देवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सभी बहनों को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।

त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥१३॥

कमल के समान नेत्रों वाली माते आपके चरणों में किए गए प्रणाम । संपत्ति प्रदान करने वाली, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाली , साम्राज्य में समर्थ और सारे पापो को हरने के लिए सर्वथा उध्यत है, मुझे आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता है।

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः।

संतनोति वचनाङ्गमानसै – स्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥१४॥

जिनकी कृपा से कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों को और संपतियो का सदा विस्तार करती है, श्री हरी की प्रियश्री लक्ष्मी देवी का में मन, वाणी, और शरीर से भजन करता हु।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे।

भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥१५॥

हे भगवती हरी प्रिया तुम कमलवन में निवास करने वाली हो तुम्हारे हाथो में नीलकमल सुशोभित है, तुम अत्यंत उज्जवल वस्त्र , गंध और माला आदि से सुशोभित हो , तुम्हारी झांकी बहुत ही मनोरम्य है, त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी मुझ पर प्रसन्न हो।

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट – स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम्।

प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष – लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥१६॥

दिगज्जो द्वारा स्वर्ण कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगो का अभिषेक संपन्न होता है, संपूर्ण भगवान के अधिश्वर विष्णु की पत्नी और शिर सागर की पुत्री जगत जननी लक्ष्मी को में प्रातः काल प्रणाम करता हु।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्‌गैः।

अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥१७॥

कमल नयन केशव के कमलनीय कामनीय कमले में एक एक मनुष्यों में अग्र गण्य हु अतः तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हु। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षो द्वारा मेरी ओर देखो।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥१८॥

जो मनुष्य इस स्तुति द्वारा प्रतिदिन भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते है वे इस भूतल पर महान है, गुणवान तथा अत्यंत सौभाग्यशाली है और विद्वान पुरुष भी उनके मनोभाव को जानने के लिए उत्सुक रहते है।

॥ श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित संपूर्ण हुआ ॥

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